बड़ा ही ठोस व विशुद्ध सा सवाल है.…जिसका किसी भी क्लोरमिंट खाने वाले, न खाने वाले पर औरों को खाते हुए देखने वाले के ज़हन में उठना स्वाभाविक है । तो यहाँ, भारतीय प्रौद्योगिकी संसथान, पवई के सदन एल सी सी -1 1 में मैंने कुछ तीन घंटे और चंद मिनट, इस सवाल की दान-पेटी में …जवाब की आस में....चढ़ावा समझ कर चढ़ा दिए.…
एक आवश्यक सूचना (Disclaimer)
बचपन खेलता है गोद में जिसकी
बाद उसे भूल जाते हैं
क़र्ज़ से उसके…मुँह फेरने खातिर
शहरों में रहते हैं अब हम
दिलों में कहाँ रह पाते हैं
क्लोरमिंट जो खाते हैं हम
तो रैपरों (wrappers) से सड़क सजाते हैं
खुद अपना 'घर' गन्दा करने को
हम क्लोरमिंट खाते हैं
मेंटॉस (mentos) की गोली भी कहाँ
वो शख्स कोई पागल होगा
ये सब जो लिख जाता है
उसकी लिखावट भूलने की खातिर
P.S. This work was produced at an on the spot creative writing event "JUST ABOUT WRITE" @ Mood Indigo 2013.
Kavita
एक आवश्यक सूचना (Disclaimer)
आगे आने वाली तमाम पंक्तियों में कुछ भी काल्पनिक नहीं है । इनका प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से आपसे, मुझसे...इस देश के हर क्लोरमिंट खाने व ना खाने वाले से गहरा....और बहुत गहरा सम्बन्ध है ।
'मेरा भारत महान' के नारे
हर पंद्रह अगस्त लगाते हैं
बाद गले कि खराश मिटाने
हम क्लोरमिंट खाते हैं
'सत्यमेव जयते' सी बातें
वो स्कूलों में हमें सिखलाते हैं
अब हर दिन ईमान बेच हम
'क्लोरमिंट' खाते और खिलाते हैं
हर पंद्रह अगस्त लगाते हैं
बाद गले कि खराश मिटाने
हम क्लोरमिंट खाते हैं
'सत्यमेव जयते' सी बातें
वो स्कूलों में हमें सिखलाते हैं
अब हर दिन ईमान बेच हम
'क्लोरमिंट' खाते और खिलाते हैं
बचपन खेलता है गोद में जिसकी
बाद उसे भूल जाते हैं
क़र्ज़ से उसके…मुँह फेरने खातिर
हम क्लोरमिंट खाते हैं
अपनी बेटियों की होलिका हम
अपने हाथ जलाते हैं
गर्म राख ठंडा करने को
हम क्लोरमिंट खाते हैं
अपनी बेटियों की होलिका हम
अपने हाथ जलाते हैं
गर्म राख ठंडा करने को
हम क्लोरमिंट खाते हैं
शहरों में रहते हैं अब हम
दिलों में कहाँ रह पाते हैं
ये हरी गोली साथ निभाती है कुछ
सो हम क्लोरमिंट खाते है
ज़िन्दगी आसान बनाने के चक्कर में
हम खुद से दूर हो जाते हैं
इस बात से साफ़ मुकर जाने की खातिर
अब हम क्लोरमिंट खाते हैं
सो हम क्लोरमिंट खाते है
ज़िन्दगी आसान बनाने के चक्कर में
हम खुद से दूर हो जाते हैं
इस बात से साफ़ मुकर जाने की खातिर
अब हम क्लोरमिंट खाते हैं
क्लोरमिंट जो खाते हैं हम
तो रैपरों (wrappers) से सड़क सजाते हैं
खुद अपना 'घर' गन्दा करने को
हम क्लोरमिंट खाते हैं
मेंटॉस (mentos) की गोली भी कहाँ
'दिमाग की बत्ती' जला पाती है
सोते हुए को भला कौन जगाए
हम क्लोरमिंट खाते हैं
महँगाई की मार पड़ी है
अब बाज़ार बड़ा रुलाते हैं
सोते हुए को भला कौन जगाए
हम क्लोरमिंट खाते हैं
महँगाई की मार पड़ी है
अब बाज़ार बड़ा रुलाते हैं
अठन्नी की आती है ये
तो हम क्लोरमिंट खाते हैं
पिछली पंक्ति को पढ़कर
हम मंद-मंद मुस्काते हैं
हम दोनों 'आम आदमी' हैं...भैये
हम दोनों क्लोरमिंट खाते हैं
तो हम क्लोरमिंट खाते हैं
पिछली पंक्ति को पढ़कर
हम मंद-मंद मुस्काते हैं
हम दोनों 'आम आदमी' हैं...भैये
हम दोनों क्लोरमिंट खाते हैं
वो शख्स कोई पागल होगा
ये सब जो लिख जाता है
उसकी लिखावट भूलने की खातिर
हम क्लोरमिंट खाते हैं
- साकेत
*conditions apply
दुबारा मत पूछना !!
दुबारा मत पूछना !!
P.S. This work was produced at an on the spot creative writing event "JUST ABOUT WRITE" @ Mood Indigo 2013.
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