तलाश...


"तालव्य 'श' में हरस्व या छोटी 'उ 'की मात्रा...'र' में फिर से छोटी 'उ' की मात्रा...'अ' में 'आ' की मात्रा और अंत में 'त'......शुरुआत !"

ये अंश हैं, मेरे और हिंदी शब्द-कोष के बीच...आज हुए एक अत्यंत लघु-संवाद के | शब्द-कोष इस बात पर अड़ा हुआ था कि 'शुरुआत' की शुरुआत मात्र एक तालव्य 'श' कर देता है...और इस बात का ज़िक्र गर यहाँ उठा है तो...जाहिर सी बात है...मेरे विचार कुछ अलग रहे होंगे...

२६ जनवरी का दिन रहा होगा...शायद! और मुख-पुस्तिका (फेसबुक) के पटल पर कुछ शब्द मध्य-रात्रि में बिखरने को तैयार थे | तब शायद! उन्हें इस बात का ज़रा भी इल्म न होगा कि...इक कारवाँ होगा...शब्दों का...जो उनके पीछे-पीछे चल पड़ेगा और तक़रीबन साल भर बाद उनके साथ खड़ा होगा...तैयार, किसी 'छिछोरे' की कलम से निकल कर...किसी कागज के टुकड़े पर...फिर से एक बार...बिखर जाने को...

६५ साल पहले हमने शुरुआत की थी...एक तलाश की |
आज हमारे आगे बहुत से सवाल हैं...खुद से करने को...खुद  के गिरेबाँ में झाँक, जवाब तलाशने को...पर शायद! आज नहीं...

आज २५ जनवरी,२०१४ की रात को हम, भारत के लोग....और हमारा भारत, चाहे जिस भी मुकाम पर खड़े हों...अच्छे या बुरे...जो भी हो, पर कल के सूरज की रोशनी में लिपटा तिरंगा हमें छोड़ जाएगा...सवालों-जवाबों की दुनिया से...दूर...हमें छोड़ जाएगा...वहीं...जहाँ से हम चले थे...निकले थे...आज से ६५ साल पहले...उस 'शुरुआत' पर जिसकी शुरुआत करना...किसी एक तालव्य 'श' के बस की बात...तो शायद! कभी थी ही नहीं...

खैर, हिंदी शब्दकोष आज भी अपनी बात पर अडिग है...और मेरे विचार आज भी विपक्ष की शोभा बढ़ा रहे हैं...और जहाँ तक बात रही तलाश की...तो

हम, भारत के लोग, भारत को...आज भी तलाश रहे हैं....



प्यासे कुंठित कंठों से
गूँज रही वो प्यास है
उस भारत से मिलवा दो मुझको
जिसकी मुझे तलाश है

रगों में आज भी जिस भारत के
वो गंगा पावन बहती हो
उस गंगा के दर्शन करवा दो
जो खुद को पवन कहती हो

सर टीके की लाली हो
और हाथों कड़ा-कृपाण हो
होठों पाक कुरआन सजे...बस
दिल में हिन्दुस्तान हो

प्यासे कुंठित कंठों से
गूँज रही वो प्यास है
उस भारत से मिलवा दो मुझको 
जिसकी मुझे तलाश है

मीलों मील के पत्थर हों
हर पत्थर पर इक सपना हो
सपना हो वो उस भारत का
जो भारत मेरा अपना हो

एक सड़क हो चमकीली सी
घर-घर तक जो जाती हो
दिन गुज़रे होली हो जैसे
हर सांझ दीवाली आती हो

प्यासे कुंठित कंठों से
गूँज रही वो प्यास है
उस भारत से मिलवा दो मुझको 
जिसकी मुझे तलाश है

हरियाली की चादर ओढ़े
इतराते खेत खलिहान हों
पेट भर जाता जो मेरा
खुश वो मेरा किसान हो

छप्पन भोग की चाह न हो जो
खून में छन इठलाती हो
कोई वो सूखी रोटी दिलवा दो
जो बेच पसीना आती हो

प्यासे कुंठित कंठों से
गूँज रही वो प्यास है
उस भारत से मिलवा दो मुझको 
जिसकी मुझे तलाश है

काली दीवार पर सफ़ेद लकीरें
नसीब जहाँ लिख जाती हों
नाम नहीं जहाँ हुनर से सबकी
पहचान गिनाई जाती हो

उस भारत की चाह नहीं जो
केवल यह सब पढता हो
उस भारत से मिलना है मुझको
जो धड़-धारण सब करता हो

टकटकी लगायी आँखों में फिर
पलता एक एहसास है
उस भारत से मिलवा दो मुझको
जिसकी मुझे तलाश है


जय हिंद !


- साके





P.S. This poem was recited at an event named "BAAT BAN JAAYE" under event category Speaking Arts @ Mood Indigo 2013 (Annual Cultural Fest of IIT-Bombay)

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