आज २० मार्च है...बुधवार भी है | तो सोचता हूँ की चाय की चुस्कियों के साथ कुछ ख़बरों का ज़ायका हो जाये तो बात ही कुछ और होगी | तो बैठ जाता हूँ अखबार लेकर खबरों का लुत्फ़ उठाने...वैसे आजकल कुछ ज्यादा लजीज नहीं छपता अखबारों में (मायानगरी के कुछ मनमोहक चटपटी अटखेलियों के अलावा)
प्रथम पृष्ठ तो मनमोहन सरकार की नैय्या को थामे सपा-बसपा की धर्म-वीर समान जोड़ी को समर्पित है | द्वितीय पृष्ठ पर तो वार्ड चुनावों के घने बादल मंडरा रहे थे, तो बेहतरी इसी में थी कि तृतीय पृष्ठ की ओर बिना शर्त बढ़ा जाए...
तीसरे पन्ने पर तो विज्ञापनों का प्रकोप देखकर किसी जायकेदार खबर के मिलने की संभावना क्षीण ही लग रही थी कि तभी नज़र आकार थम जाती है है उस छोटे से कोने पर छापी एक खबर पर....जो किसी सालों पहले छूटे मित्र की याद दिला जाती है....२० मार्च को कुछ खास बना जाती है....सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या २० मार्च का खास बनना जरुरी था ? और इसे खास बनाने के पीछे कहीं मैं भी खड़ा अपने योगदान पे इठला तो नहीं रहा.....
आज २० मार्च है 'विश्व गोरैया दिवस' !!!!
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प्रथम पृष्ठ तो मनमोहन सरकार की नैय्या को थामे सपा-बसपा की धर्म-वीर समान जोड़ी को समर्पित है | द्वितीय पृष्ठ पर तो वार्ड चुनावों के घने बादल मंडरा रहे थे, तो बेहतरी इसी में थी कि तृतीय पृष्ठ की ओर बिना शर्त बढ़ा जाए...
तीसरे पन्ने पर तो विज्ञापनों का प्रकोप देखकर किसी जायकेदार खबर के मिलने की संभावना क्षीण ही लग रही थी कि तभी नज़र आकार थम जाती है है उस छोटे से कोने पर छापी एक खबर पर....जो किसी सालों पहले छूटे मित्र की याद दिला जाती है....२० मार्च को कुछ खास बना जाती है....सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या २० मार्च का खास बनना जरुरी था ? और इसे खास बनाने के पीछे कहीं मैं भी खड़ा अपने योगदान पे इठला तो नहीं रहा.....
आज २० मार्च है 'विश्व गोरैया दिवस' !!!!
चंचल कोमल हलचल लिए,
आँगन मेरे चहचहाती थी...
सुबह सूरज की किरणें पहुँचाने,
मेरी खिड़की तक आती थी...
भूरा रंग और छोटे तन में,
क्या खूब खड़ी इठलाती थी ?
बचपन ना होता बचपन बिन उसके,
जीवन में 'बचपन' भर जाती थी...
अखबारों में सजी हुई वह,
आँगन मेरे आई थी आज...
शिथिल मुरझाई सी थी पन्नों पर,
ना हलचल थी, ना आवाज...
आज अचानक उसे देख कर,
मीलों दूर मन भाग गया...
सालों सोया बचपन मन अंदर,
यूँ हौले-हौले जाग गया...
आँगन दौड़ा, खिड़की खोली,
सोचा खेलूँ मैं उसके साथ...
सूनी खिड़की थी, सूना आँगन देख,
लौट गया बस खाली हाथ...
याद नहीं कब वह छोटा प्याऊ,
आँगन में रखा टूट गया...
बड़े होते-होते ना जाने कब ‘वह’,
‘बचपन’ हमसे रूठ गया...
आज ख्याल भी अखबार देख कर,
उस पुराने दोस्त का आता है...
दोस्त दूर हैं, खुद से मिलने का...
वक्त कहाँ मिल पाता है ?
नाम दोस्त का याद नहीं है,
जाने वह क्या कहलाती थी...
याद नही वो दिन आखिरी जब,
वह हमसे मिलने आती थी....
रोशनदान भी शांत पड़े है,
जो धुन में उसकी बह जाते थे...
वो दिन भी क्या दिन थे जो,
सचमुच ‘दिन’ कहलाते थे...
ना जाने कौन थी वह ?
आखिर क्या कहलाती थी ??
कौन थी वह जो ‘किरणें’ पहुँचानें,
मेरी खिड़की तक आती थी...
सोचा रोशनदान से पूछूँ,
आखिर क्या कहलाती थी ?
सोचा पूछूँ उस आँगन से जिसके,
वह गोद खड़ी इठलाती थी...
जाने कैसे रोशनदानों से जाकर,
सवाल मेरे टकरा गए...
शर्म आई जब चेहरे पर उनके,
जवाब उभर कर आ गए...
आँगन बरस रहा था मुझपर,
रोशनदान भी था हठी बड़ा...
हवा थपेड़े मार रहा था,
कि टूटा प्याऊ चीख पड़ा...
“क्यों पूछ रहा है कौन थी वह,
आखिर क्या कहलाती थी...
एक भी बार क्या सुध ली उसकी ?
जो वह तुझसे मिलने ना आती थी...
जा किताबों में ढूँढ ले उसको,
वह आखिर क्या कहलाती थी ?
छपवा दे अखबारों में जाकर अब,
कि ‘वह’ गोरैया कहलाती थी...”
- साकेत
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