तिरे इश्क़ की इंतिहा

मोहम्मद इकबाल उर्फ़ अलाम्मा इकबाल, उर्दू शायरी की दुनिया का वो नाम जिसे अदब की स्याही से लिखा जाता रहा है | इकबाल का ओहदा उफुक की बुलंदियों पर रौशन सितारे की तरह मुकम्मल है, कल, आज, ताउम्र | वक्त बेवक्त कलाम-ए-इकबाल से मुखातिब हो जाना अब आदत की तरह है | बीते दिनों, इत्तेफाकन इकबाल साहब की एक ग़ज़ल "तेरे इश्क की इन्तेहाँ चाहता हूँ ", से रूबरू हुए, ज़र्या असरार साहब की रूहानी आवाज़ थी, हवा में घुल कर जेहेन तक असर कर गई | बात यहाँ तक भी रहती तो लिखने का मकसद न होता, मतलब न होता | बात बढ़ने लगी, आदत , फिर जूनून, फिर फितूर की शक्ल इख्तियार करने लगी और फिर दौर आया कलम की गुस्ताखियों का |
'बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ'
कलम की गुस्ताखियाँ आज बेचैन बैठीं हैं ज़ाहिर हो जाने को और बे-अदब इकबाल साहब के अंदाज़ में बयान हो जाने को...





तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ

सितम हो कि हो वादा-ए-बे-हिजाबी
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ

ज़रा सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतना
वही लन-तरानी सुना चाहता हूँ

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल
चराग़-ए-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ




इकबाल



बड़ी देर से चल, बड़े दूर से हूँ
मैं तेरे शहर में पनाह चाहता हूँ

राहें सितमगर, और तेरी वफ़ा है
मैं आँखों के आगे धुँआ चाहता

टूटे सितारों से माँगी दुआ है
सितारों से आगे जहाँ चाहता हूँ

तुमसे गुलों का ये बाजार गुलशन
मैं खुश्बू में तेरी घुला चाहता हूँ

जज़्बात ओ जुनूँ हो, फ़ितूर बन चुके हो
क्या तुमको बताऊं, किस तरह चाहता हूँ

मकाम-ओ-मंज़िल, रास्ता तुम्ही हो
मैं तुम्हारे सिवा कुछ कहाँ चाहता हूँ


साकेत






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