के हर मोड़ पर पीछे मुड़कर देखा है
शायद! बहोत आगे निकल गए हो तुम ।
एक दौर बीता है, अब भी सुलग रहा हूँ मैं,
पत्थर हो आज भी, या पिघल गए हो तुम ?
मुदात्तों मिन्नतें की हैं, तू बहके, मैं संभाल लूं
कोशिशें की है, क्यूँ हर बार संभल गए हो तुम ?
मुझे उल्फ़त की मायूस गलियों ने मुहाज़िर लिखा है
कोई पूछ देता है, तो कह देते हैं, कल गए हो तुम ।
रोज़ ख्वाबों में जाग, तेरी धुंधली तस्वीर बनाई है
के अब ज़माना कहता है, बदल गए हो तुम ।
मुहाज़िर - immigrant, refugee
Ghazal
शायद! बहोत आगे निकल गए हो तुम ।
एक दौर बीता है, अब भी सुलग रहा हूँ मैं,
पत्थर हो आज भी, या पिघल गए हो तुम ?
मुदात्तों मिन्नतें की हैं, तू बहके, मैं संभाल लूं
कोशिशें की है, क्यूँ हर बार संभल गए हो तुम ?
मुझे उल्फ़त की मायूस गलियों ने मुहाज़िर लिखा है
कोई पूछ देता है, तो कह देते हैं, कल गए हो तुम ।
रोज़ ख्वाबों में जाग, तेरी धुंधली तस्वीर बनाई है
के अब ज़माना कहता है, बदल गए हो तुम ।
- साकेत
मुहाज़िर - immigrant, refugee
6 comments
mast bhai....
ReplyDeleteStay tuned!
Deletenice sir...
ReplyDeleteMeans a lot. Stay tuned!
DeleteGreat work ����, this one is my personal favourite. Keep it up .
ReplyDeleteExpecting more to come
Means a lot. Stay tuned!
Delete