आँचल का साया, चन्दन...
डांट मिश्री की गोली लगती है |
जब भी मेरी माँ हँसती है
मुझे जिंदगी होली लगती है |
अब किस 'अपने' से मिलें
इस गैर से शहर में,
यहाँ नुक्कड़-नुक्कड़
रिश्तों की बोली लगती है |
देने वाले ने देने को
उसे पूरी कायनात दे दी,
उसे आज भी खाली
अपनी झोली लगती है |
कल अर्से बाद सड़कों पर
कोई बेतहाशा नाच रहा था,
किसी को कहते सुना "आवारा, मदमस्त,
'गँवारों' की टोली लगती है |"
वो बेपरवाह नाच रहा था,
बेहिचक जी रहा था |
ख्वाब था शायद ! उसने अभी
नींद से आँखें खोली लगती हैं |
- साकेत
2 comments
कमाल का लिखा है यार...सही में।
ReplyDeleteशुक्रिया वसीम |
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